६ अक्टूबर २०१६ को दिवंगत

ऋषि भक्त डा. धर्मवीर जी आर्यसमाज के बहुमुखी प्रतिभा के धनी शीर्षस्थ विद्वान थे। आप आर्यसमाज के प्रगल्भ वक्ता, प्रतिष्ठित लेखक, सम्पादक, पत्रकार, वेद-पारायण यज्ञों का ब्रह्मत्व करने वाले यज्ञ मर्मज्ञ, धर्मोपेदेशक, आर्यसमाज के प्रचारक, प्रभावशाली उपदेशक सहित भव्य व्यक्तित्व के धनी भी थे। परोपकारिणी सभा से आप अनेक दशकों से जुडे हुए थे और वर्तमान में इस प्रतिष्ठित सभा के प्रधान पद को सुशोभित एवं गौरवान्वित कर रहे थे। व्यवसाय की दृष्टि से आप दयानन्द कालेज, अजमेर के शिक्षक सहित अनेक दायित्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रहे। माह सितम्बर-अक्तूबर, 2016 के लगभग दस-बारह दिनों के अल्पकालिक रोग के बाद अचानक 6 अक्टूबर, 2016 को आपकी मृत्यु हो गई। इस समाचार से सारा आर्य जगत स्तब्ध है। परोपकारिणी सभा, अजमेर से जुड़कर अपने कार्यकाल में आप इसे उन्नति के शिखर पर ले गये। सभा के ऋषि उद्यान में एक गुरुकुल व गोशाला की स्थापना व संचालन सहित आचार्य सत्यजित् आर्य, आचार्य सोमदेव जी, विष्वङ्ग जी और आचार्य कर्मवीर जी जैसे उच्च कोटि के ऋषिभक्त विद्वानों को अध्ययन व अध्यापन आदि की अपनी गतिविधियां संचालित करने का आपने सुअवसर प्रदान किया। आपके चले जाने से आर्यसमाज में जो रिक्तता आई है उसकी पूर्ति होना सम्भव नहीं दीखता। यह आर्यसमाज एवं डा. धर्मवीर जी के परिवार की एक ऐसी क्षति है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। आर्यसमाज का शायद् यह इतिहास ही रहा है कि ऋषि दयानन्द सहित इसके प्रमुख विद्वान पं. लेखराम जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी श्रद्धानन्द, महाशय राजपाल आदि अचानक ही मृत्यु का ग्रास बने।

 

                डा. धर्मवीर जी का जन्म 20 अगस्त सन् 1946 को पं. भीमसेन आर्य के घर उद्गीर महाराष्ट्र में हुआ था। आपके पिता दृढ़ आर्यसमाजी, कवि एवं स्वतन्त्रता सेनानी थे। धर्मवीर जी को 10 वर्ष की आयु में गुरुकुल झज्जर में प्रविष्ठ कराया गया। व्याकरणाचार्य की उपाधि ग्रहण करने के बाद आप आगे अध्ययन के लिए गुरुकुल कांगड़ी चले आये। यहां आयुर्वेद महाविद्यालय में अध्ययन करके बीए.एम.एस. की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद संस्कृत व्याकरण और साहित्य में अधिक रुचि होने के कारण एम.ए. संस्कृत में प्रवेश लिया। आपने यह परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। डा. धर्मवीर जी हंसमुख, विनोदी, सरल और निश्छल स्वभाव के व्यक्ति थे। सन् 1974 में आप दयानन्द कालेज, अजमेर में संस्कृत के प्राध्यापक नियुक्त हुए। कुछ वर्ष बाद अध्यापन के साथ-साथ आपने पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में दयानन्द शोधपीठ से डा. भवानीलाल भारतीय के निर्देशन में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। सन् 1975 में दयानन्द संस्थान के संस्थापक और संचालक पंडित भारतेन्द्र नाथ जी (महात्मा वेदभिक्षु जी) की ज्येष्ठ पुत्री ज्योत्सना जी के साथ आपका विवाह हुआ। नोबेल पुरस्कार प्राप्त श्री कैलाश सत्यार्थी जी आपके रिश्ते में साढू हैं। सन्तान के रूप में आपको सुयश, सुवर्या और निमिषा नाम की तीन संस्कारवती पुत्रियां प्राप्त हुईं। डा. धर्मवीर जी का एक संकल्प था। वे बचपन से ही अपनी तीनों पुत्रियों से केवल संस्कृत में बात करते थे। इस संकल्प का उन्होंने आजीवन निर्वाह किया। महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी संस्था परोपकारिणी सभा के साथ वह  आज से चालीस वर्ष पहले जुड़े थे। आपने इस प्रतिष्ठित सभा के सदस्य, उपमंत्री, संयुक्त मंत्री, मंत्री, कार्यकारी प्रधान और प्रधान रहकर अपनी बहुमूल्य सेवायें प्रदान कीं। सत्यनिष्ठा, परिश्रम, लग्नशीलता, कर्मठता, निस्वार्थ भाव, निष्कामता, धैर्य और समर्पण के भाव आपके जीवन के आधार स्तम्भ व मूल मंत्र थे जिन्होंने आपके जीवन व व्यक्तित्व को समूचे आर्यजगत का प्रिय बनाया।

 

परोपकारिणी सभा के मंत्री के रुप में आपने जब कार्यभार संभाला था तब ऋषि उद्यान में भवन के नाम पर केवल एक सरस्वती भवन था। उसके बाद आपने उद्यान परिसर में कई मंजिलों वाले अनेक भव्य भवनों का निर्माण कराया। ऋषि उद्यान में गुरुकुल एवं गोशाला का श्रीगणेश किया। विरक्त साधु-संन्यासियों और ब्रहम्चारियों को निःशुल्क रहने की सुविधा प्रदान की। यहां ऐसे अनेक विद्वान आचार्य रहते हैं, जो वेद और आर्यसमाज के प्रचार कार्य को देश और विदेश में लगातार गति प्रदान कर रहे हैं। आपने प्रकाशन के काम में विशेष गति प्रदान की। परोपकारिणी सभा के माध्यम से महर्षि दयानन्द के ऋग्वेदभाष्य और यजुर्वेद भाष्य सहित अन्य सभी ग्रन्थों, इतर वेदभाष्य एवं अनेक वैदिक ग्रन्थों का प्रकाशन भी पर्याप्त संख्या में कराया है। आस्था टीवी चैनल के माध्यम से भी डा. धर्मवीर जी के सैद्धांतिक, शास्त्रीय और धार्मिक प्रवचनों का प्रसारण लम्बे समय तक होता रहा है। आप परोपकारी पत्रिका के तीस वर्षों से भी अधिक समय से अवैतनिक सम्पादक रहे। जब आपने इसका कार्यभार सम्भाला था तो इसकी प्रसार संख्या 400 से 500 के बीच थी और अब लगभग पन्द्रह हजार की संख्या में इसे पाक्षिक रूप से प्रकाशित किया जा जाता है। इन उन्नतियों  का मुख्य श्रेय आपके संकल्पों, निर्णयों व कार्यों को ही है। डा. धर्मवीर जी का व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावशाली था। आपकी वाणी मधुर, मोहक, शुद्ध, स्पष्ट और ओजस्वी थी। आपका परिधान सादा, सुन्दर और उज्जवल होता था। आप श्वेत धोती कुर्ता पहनने का संकल्प लिए हुए थे। प्रखर वक्ता थे। आप निर्भीक और ओजस्वी लेखक और पत्रकार थे। आपका जीवन महर्षि दयानन्द, वेद और आर्य समाज के लिए समर्पित था। स्वार्थ आपको छू तक नहीं गया था और परार्थ अपका लक्ष्य था। मानवता के आप सच्चे उपासक थे।

 

धर्मवीर जी ने आर्यसमाज की विचारधारा का अपने निजी जीवन में भी पूरा पूरा पालन किया। आपने अपनी तीनों पुत्रियों के विवाह जाति बन्धन तोड़कर किये। इस पर टिप्पणी करते हुए आर्य विद्वान् प्रा. जिज्ञासु जी कहते हैं कि अपनी सन्तानों के विवाह जाति बन्धन तोड़कर करने की बात करना सरल परन्तु विवाह करना कठिन है। डा. धर्मवीर जी जातिवाद, प्रान्तवाद की सोच से बहुत ऊपर थे। निडरता व ऋषि दयानन्द जी के व्यक्तित्व के प्रायः सभी गुण आपको बपौती से प्राप्त हुए थे। आपके पिता श्री पं. भीमसेन जी की सत्यवादिता व धर्मनिष्ठा को मराठवाड़ा के सब आर्य जानते व मानते थे।

 

आज डा. धर्मवीर जी हमारे मध्य में नहीं है। वह इस मर्त्यलोक से जा चुके हैं तथापि उनके कार्य और लिखित साहित्य तथा आडियो व वीडियोज् सुरक्षित व उपलब्ध हैं जो वर्तमान  व भविष्य में आर्यों का मार्गदर्शन कर सकते हैं व करेंगे। हमें आशा है कि निकट भविष्य में उनके जीवन व कार्यों पर कुछ पठनीय पुस्तकों का प्रकाशन होगा। कई आर्य पत्रिकायें उन पर विशेषांक भी प्रकाशित कर रही हैं। हमें यदा-कदा इ स समस्त सामग्री का अवलोकन व अध्ययन करते रहना चाहिये। हमें लगता है कि वर्तमान में जो लोग उनके सम्पर्क में आये हैं, वह तो उन्हें याद रखेंगे ही।

 

मृत्यु के पूर्व वह किसी से संवाद नहीं कर सके। डाक्टरो को हाथ से संकेत करते हुए उन्हें धैर्य रखने की प्रेरणा करते रहे। डा. धर्मवीर जी ने जो शास्त्रीय वचन आदि ण्ठाग्र कर रखे थे, उसका वह चलते-फिरते व यात्रा आदि करते हुए पारायण करते रहते थे। मृत्यु से पूर्व देह-त्याग के समय तक वह कुछ बड़बड़ाते रहे। रेलयात्रा के बाद अस्पताल जाते समय कह रहे थे ले चलो हमें दयानन्द के स्थान पर। स्टेशन से ऋषि उद्यान लाते समय भी सेवकों को यही कहते थे मुझे ऋषि उद्यान नहीं, श्मशान ले चलो। मृत्यु के बाद उनका दाह कर्म उसी स्थान पर किया गया जहां महर्षि दयानन्द जी का किया गया था।

 

डा. धर्मवीर जी पुरुषार्थ व परमार्थ के पुतले थे। उनका जीवन अत्यन्त घटनापूर्ण रहा। यदि वह अपनी आत्म कथा लिख जाते तो अच्छा होता। हमें उसे पढ़कर उनसे सम्बन्धित बहुत से तथ्यों को जानने का अवसर मिलता। यदि सम्भव हो तो उनके जीवन के सभी प्रसंगों का संग्रह कर उसका प्रकाशन किया जाना चाहिये जैसा कि पं. लेखराम रचित ऋषि के जीवन में किया गया है। आर्य समाज के पूजनीय विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु उनके निकट रहे हैं। वह यदि डा. धर्मवीर जी विषयक अपने सभी संस्मरण लेखबद्ध कर दें तो यह उत्तम कार्य होगा।

 

डा. धर्मवीर जी ने परोपकारिणी सभा को एक नई पहचान दी। ऋषि उद्यान में नये भवन बने, विद्वानों का सत्कार होने लगा। गोशाला के संचालन के साथ सभा में आचार्य सत्यजित् आर्य जी का निवास व गुरुकुल का संचालन भी सभा की महनीय गतिविधियां रही हैं। परोपकारी मासिक पत्र का तो मासिक से पाक्षिक होना और कुछ सौ की प्रकाशन संख्या से सहस्रों की संख्या का स्तर प्राप्त करना आपके कुशल दिशा-निर्देशन का ही परिणाम कहा जा सकता है। ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य सहित विगत कुछ वर्षों में पं. विश्वनाथ वेदोपाध्याय कृत अथर्ववेदभाष्य एवं ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापनों का प्रकाशन भी परोकारिणी सभा के स्तुत्य कार्य हैं जिनका मुख्य श्रेय आपको ही है। परोपकारी पाक्षिक में आपका लगभग तीन पृष्ठों का सम्पादकीय प्रत्येक अंक में प्रकाशित होता था। विषय की जो स्पष्टता और अभिव्यक्ति आपके सम्पादकीय में होती थी वह हमें अन्य किसी पत्रिका के सम्पादकीय में पढ़ने को नहीं मिलती थी। कुछ वर्ष पूर्व पं. क्षितीज वेदालंकार के आर्यजगत में सम्पादकीय भी अति रुचिकर होते थे। इसका यह प्रभाव था कि जब भी परोपकारी पत्रिका आती थी तो हम उसमें सम्पादकीय और जिज्ञासु जी का कुछ तड़प-कुछ झड़प लेखों को प्रथम पढ़ते थे। अक्तूबर, 2016 के द्वितीय अंक में भी यज्ञ की वेदी पर पाखण्ड के पॉव शीर्षक सम्पादकीय पढ़ने को मिला। अब आगे से यह श्रृंखला टूट गई है जिसका हमें दुःख है। यदि परोपकारी में प्रकाशित आपके सभी लेखों का एक संग्रह प्रकाशित कर दिया जाये तो यह उत्तम कार्य होगा। एक ओर जहां इन सभी लेखों की रक्षा होगी वहीं हमारे शोध छात्रों को भी कुछ विशष पढ़ने व सीखने को मिलेगा। हमारे पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक भी इससे शिक्षा लेकर अपने सम्पादकियों में सुधार कर सकते हैं। 40-45 वर्ष पूर्व आर्यसमाजी बनने के बाद से परोपकारी पत्रिका हमारी प्रिय पत्रिका रही है। हमने तभी से इसे व अन्य कुछ पत्रिकाओं को वर्ष भर के अंकों को बाइण्ड कराकर रखना आरम्भ कर दिया था। बीच में एक बार यह श्रृंखला टूट गई थी परन्तु इसके बाद हमने इसे पुनः आरम्भ कर दिया था। आज हमारे पास परोपकारी पत्रिका साहित्य भी एक बहुत बड़ी पूंजी के रूप में विद्यमान है जिसे कुछ समय बाद हमें भी किसी योग्य पुस्तकालय को सौंपना है जहां इसकी रक्षा होने के साथ अधिक से अधिक लोग इसका लाभ उठा सकें।

 

                डा. धर्मवीर जी तीन पुत्रियों के पिता एवं विद्वान गृहस्थी थे। हर गृहस्थी की इच्छा होती है कि उसका अपना घर हो परन्तु वह इस इच्छा में फंसे नहीं। उन्होंने अपना कोई घर नहीं बनाया। आप आर्यसमाजों के उत्सवों व आयोजनों में उपदेशों व प्रचार के लिए जाते थे परन्तु आपने कुछ अन्य प्रचारकों की तरह कभी अपनी दक्षिणा और यात्रा भत्ता न तय किये और न किसी प्रकार की कहीं किसी से मांग की। इस विषय में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी कहते हैं कि धर्मवीर जी ने घर नहीं बनाया। अपने लिए कभी कुछ नहीं मांगा। न दक्षिणा मांगते हुए उन्हें देखा गया और न ही मार्ग व्यय की कहीं मांग की। घर घाट बनाने, धन कमाने की कतई चिन्ता नहीं की। जो कुछ कहीं से मिला, चुपचाप सभा को भेंट करते रहे। एक स्थान पर जिज्ञासु जी ने बताया है कि वह ईश्वर से कोई ऐसा वरदान लेकर आये थे कि वह निरन्तर नया-नया इतिहास रचते रहे। जहां भी हाथ लगाया, एक सृष्टि रच दी। धर्मवीर जी किसी व्यक्ति की चाकरी नहीं करना चाहते थे, वह ध्ययेनिष्ठ थे। इतिहास में ऐसे दृढ़ निश्चय वाले व्यक्ति ही स्थान पाते हैं। 5 अक्तूबर को मृत्यु से पूर्व की रात्रि उनका स्वास्थ्य अत्यन्त चिन्ताजनक था। गुरुकुल का ब्रह्मचारी योगेन्द्र आर्य रात्रि को उनकी सेवा व देखभाल कर रहा था। देर रात्रि में उन्होंने उस ब्रह्मचारी को कहा, आप मेरी चिन्ता न करें। आप सो जायें। आप विश्राम करें। ऐसे संस्कार व ऐसा व्यवहार कुछ विरले महापुरुषों में ही देखने को मिलता है।

 

आचार्य धर्मवीर जी का स्वभाव निराला था। आपके प्रवचन सुनने वाले श्रोताओं की संख्या दो-तीन, सहस्र व सहस्राधिक हो, आपको इसकी कोई चिन्ता नहीं होती थी। आप प्रति वर्ष कुछ समय के लिए बिना कहीं से किसी के आमंत्रण मिले ही दूरस्थ प्रदेशों, ग्रामों व नगरों में जहां आर्यसमाजं या तो हैं नहीं और यदि हैं तो शिथिल हो चुकी अथवा मृत प्रायः हैं, जहां कोई विद्वान प्रचारार्थ जाना नहीं चाहता, वहां पहुंच जाते थे। अपनी धर्मपत्नी जी को भी आप साथ ले जाते थे। ओम् मुनि जी और प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी भी इन यात्राओं में आपके साथी रहते थे। इस वर्ष के पूर्वार्ध में जब आप गये तो उसका समाचार परोपकारी पत्र में पाठकों को पढ़ने को मिला था जिसमें बहुत उपयोगी जानकारियां थी। 2017 की प्रचार यात्रा के विषय में भी आपने राजेन्द्र जिज्ञासु जी से चलभाष पर अजमेर में बैठ कर योजना बनाने को कहा था। यात्रा में किस-किसको साथ ले जाना था, यह अभी तय होना था परन्तु इससे पूर्व ही आप अपनी अन्तिम यात्रा पर अकेले ही निकल गये।

 

डा. धर्मवीर जी 20 सितम्बर, 2016 को जबलपुर आर्यसमाज के 5 दिवसीय उत्सव के लिए अजमेर से निकले थे। आपकी धर्मपत्नी ज्योत्सना जी को भी साथ जाना था परन्तु किसी कारण वह न जा सकीं। जबलपुर में उन्होंने पांच दिन का उत्सव पूरा किया और 25 सितम्बर को दिल्ली के निकट पिलखुआ आर्यसमाज के 7 दिवसीय उत्सव में पहुंच गये। यहां आपका स्वास्थ्य में बिगाड़ हुआ जिसकी गम्भीरता को न जानकर आप अस्वस्थ होते हुए तथा कष्ट झेलते हुये भी निरन्तर व्याख्यान देते रहे। उत्सव के अन्तिम दिन तो व्याख्यान भी न दे सके परन्तु अपनी सेवा के लिए किसी को कष्ट नहीं दिया। परिवार के सदस्यों ने रेल से अजमेर न जाकर गाड़ी भेजकर उसमें आने के लिए कहा परन्

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